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कला की परिभाषा | kala ki paribhasha
कला की परिभाषा – कला मानवीय अभिव्यक्ति का एक रूप है जो सौंदर्यबोध, कल्पनाशक्ति और रचनात्मकता के माध्यम से व्यक्त होती है। कला के कई रूप हैं जैसे – चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य, साहित्य आदि। कलाकार अपनी भावनाओं, विचारों और अनुभूतियों को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। कला समाज, संस्कृति और मानवीय अनुभूतियों को दर्शाती है।
कला की परिभाषा को अन्य शब्दो में कहा जाय तो, कला हमारे विचारों का एक दृश्य रूप है । वह हमारी ‘ कल्पना – शक्ति तथा ‘ सृजन शक्ति ‘ से युक्त है । इसीलिए भारत में कला को ” योग – साधना ‘ माना जाता है । सौन्दर्य व तीव्रतम् अनुभूति से आत्म – विभोर होकर ही कलाकार सृजन करता है । इस प्रकार की कला ही वास्तव में भाव – पूर्ण व रसपूर्ण होती है । अतः कल्पना की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति का नाम ही कला है ।
कई विद्वानो का मानना है की कला कल्याण की जननी है ।
• कला हमारे मन की कल्पनाओ को प्रकट करने का एक माध्यम है जिसे हम अपनी इच्छानुसार भिन्न – भिन्न स्वरूप देते है अर्थात कला को मानवीय भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति कहा गया है
आदिमानव काल से लेकर आज तक मानव की इस कला का विकास क्रम नहीं रुका है । अपितु यह देश , काल तथा परिस्थितियों के अनुसार आगे ही बढ़ता गया है । मनुष्य को जो भी मिला , उसने उसे ही सृजन का माध्यम बना लिया ।
जैसे -ताड़ पत्र , छाल , कपडा , गुफाएँ दीवारें , चट्टानें आदि
देखा जय तो कला की भिन्न -भिन्न परिभाषाओं ने कला के स्वरूप को अस्पष्ट कर दिया है ।
कला की परिभाषा कभी भी एकमत नहीं रही ,यह भारतीय व पाश्चात्य मनीषियों तथा विद्वानों के अनुसार अलग – अलग रही है |
भारतीय मनीषियों के अनुसार कला की परिभाषा
1- डॉ . श्यामसुन्दर दास के अनुसार – जिस अभिव्यंजना में आन्तरिक भावों का प्रकाशन और कल्पना का योग रहता है , वही कला है ।
2- मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार – कला अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति है !
3- असित कुमार हाल्दार के अनुसार – कला मानव का सात्विक गुण है । एक सरल भाषा है , जो मानव जीवन के सत्यों को सौन्दर्यात्मक एवं कल्याणकारी रूप में प्रस्तुत करती है !
4- रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार – जो सत् है , जो सुन्दर है , वही कला |
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार कला की परिभाषा –
1 – फ्रायड के मतानुसार – दमित वासनाओं का उभरा हुआ रूप ही कला है| 6- हर्बर्ट रीड के अनुसार – एक साधारण सा शब्द कला साधारणतया उन कलाओं से जुड़ा होता है , जिन्हें हम ‘ रूपप्रद ‘ या ‘ दृश्य ‘ कलाओं के रूप में जानते हैं । वस्तुतः इसके अन्तर्गत साहित्य व संगीत कलाओं को भी शामिल किया जाना चाहिये , क्योंकि सभी कलाओं में कुछ तत्त्व एक समान होते हैं ।
2 – अरस्तू के कथनानुसार – कला प्रकृति के सौन्दर्य अनुभवों का अनुकरण है ।
3 – फ्रेंच समालोचक ‘ फागुए ‘ के अनुसार – कला भावों की उस अभिव्यक्ति को कहते हैं , जो तीव्रता से मानव हृदय को स्पर्श कर सके ।
4 – टाल्सटॉय ‘ के मतानुसार – कला एक मानवीय चेष्टा है , जिसमें एक मनुष्य अपनी अनुभूतियों को स्वेच्छापूर्वक कुछ संकेतों के द्वारा दूसरों पर प्रकट करता है ।
“कला के प्रति टॉल्सटॉय का यह दृष्टिकोण धार्मिक और नैतिक है । उन्होंने कला की शिलर डार्विन तथा स्पेन्सर द्वारा दी गई उस काम – मूलक परिभाषा का खण्डन किया है , जिसके अनुसार , कला मानव जगत में ही नहीं , बल्कि पशु जगत में भी काम वासना से पैदा होती है ।”
5 – टॉल्सटॉय के अनुसार – कला की महत्ता का ज्ञान भावों की सफल अभिव्यक्ति और कलाकार के मन पर पड़े हुए प्रभावों का सफलतापूर्वक संप्रेषण है 6 – आर . जी . कलिंगवुड के अनुसार – कला एक व्यक्ति की रचनात्मक इच्छा की सुन्दर अभिव्य है । यह कल्पना की रचनात्मक प्रक्रिया के द्वारा हमें प्राप्त होती है । यह उन्होंने अपनी रचित पुस्तक कला के सिद्धान्त में लिखा है |
7 – प्लेटो के अनुसार – कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है ।
8 – कवि ‘ शैले ‘ के अनुसार – ” कला ” कल्पना ” की अभिव्यक्ति है ।
कला का अर्थ (Meaning Of Art)
अगर हमें कला का सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करना है तो हमें ” कला ” शब्द के अर्थ – विकास को समझना होगा ।
कला के पर्यायवाची शब्द ‘ आर्ट ‘ ( ART ) जो कि लैटिन भाषा के आर्स ( ARS ) शब्द से बना है , जिसे ग्रीक भाषा में ” TEXVEN ” ( तैक्ने ) कहते है ।
इस शब्द का प्राचीन अर्थ ‘ शिल्प ‘ ( CRAFT ) अथवा ‘ नैपुण्य – विशेष ‘ है ।
जैसे- दस्तकारी , स्वर्णकारी आदि ।
प्राचीन भारतीय मान्यताओं में भी कला के लिए ” शिल्प और कलाकार के लिए ” शिल्पी शब्द का ही अधिक प्रयोग किया जाता था | कहा जाता है प्राचीन काल में इस प्रकार का कोई भी विभाजन नहीं था । उस समय ग्रीक और रोमन भाषा का ‘ आर्ट ‘ शब्द को केवल शिल्प के लिए ही प्रयुक्त किया जाता था । उसमें ” कला ” शब्द की सौन्दर्य – गरिमा पृथक रूप से समाविष्ट नहीं थी ।
कला का अर्थ – कला एक दुर्लभ उपहार है , कला केवल एक आवाज़, एक दृश्य, एक मात्रा या प्रतिभा नहीं है , कला वह है जो न केवल आपको आनंद दे, बल्कि अपनी रूचि और सुझाव को एक आकर दे आपकी कला ही आपको कुछ भी सृजन करने में मदद करती है, इसके आलावा कला को हम मूलतः एक उद्योग के रूप में प्रयोग कर सकते है। आपके अंदर किसी भी प्रकार की कला होना एक महान् क्षमता दर्शाता है यह आपके स्तर, प्रेम, और बुद्धी का एक मानक प्रासाद है।
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उसके पश्चात 18 वीं शताब्दी में सौन्दर्य – शास्त्रियों द्वारा ” शिल्प ” और ” कला ” का विभाजन ” उपयोगी ” एवं ‘ ललित कला के रूप में किया गया और 19 वीं शताब्दी के आते – आते ” कला ” शब्द में छिपा हुआ सौन्दर्य इतना प्रबल हो उठा कि उसने अपने पुराने युग्म ” ललित ” ( FINE ) को हटा देने पर भी वह अपने अर्थ को पूर्ण रूप से विख्यात करने लगा तथा सामान्य तौर पर ललित कला के लिए केवल मात्र ” कला शब्द का ही प्रयोग किया जाने लगा ।
प्राचीन समयानुसार भारतीय साहित्य में कला के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण होता था । जिस पर कुछ विद्वानों ने टिपण्णी की है |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार – प्राचीन भारतीय साहित्यों में कला को महामाया का चिन्मय – विलास कहा गया है । उन्होंने कला को महाशिव की आदि – शक्ति से सम्बद्ध माना है ।
ललिता – स्तवराज से ज्ञात होता है कि जब – जब शिव को लीला के प्रयोजन की अनुभूति होती है तब तब महाशक्ति रूपी महामाया जगत की सृष्टि करती है । अतः शिव की लीला सखि होने के कारण महामाया को ” ललिता ” कहा गया है , और यह माना जाता रहा है कि इन्हीं ललिता के लालित्य से ही ललित कलाओं की सृष्टि हुई है ।
अत : जहाँ कहीं भी सौन्दर्य प्रवृत्ति विद्यमान है , वहीं महामाया का यह लीला ललित रूप भी विद्यमान है ।
प्राचीन मत के अनुसार- ललित कलायें आनन्द की निधि हैं । माया के ” पंच – कुंचुकों काल , नियति , राग , विद्या और कला में ‘ कला ‘ भी एक है । इस प्रकार शैव विचारधारा में कला का दार्शनिक अर्थ में भी प्रयोग हुआ है ।
दार्शनिक विचारधारा के अनुसार कला –
दार्शनिक विचारधारा के अनुसार – कला का लक्ष्य आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार तथा परम तत्त्व ( ABSOLUTE ) की ओर उन्मुख होना है ।
इस प्रकार प्राचीन भारत की शैव साहित्य से सम्बद्ध कला – चिन्तन पूर्णतया आध्यात्मिक रही है ,लेकिन कुछ समय पश्चात् भारतीय परम्परा से कला की यह पवित्रता ( PURITY ) जाती रही है कुछ और समय पश्चात कामशास्त्र ‘ व ‘ कोकशास्त्रों में ही कला की अधिकांश चर्चा की जाने लगी तथा प्राचीन समय में कला के प्रति भारत वासियो का जो दृष्टिकोण था , उसे हम यहाँ की विभिन्न विस्तृत कला – सूचियों के माध्यम से ज्ञात कर सकते हैं । जो निम्न प्रकार से है
ललित विस्तर – 86
प्रबन्ध कोष – 72
कामसूत्र ( वात्स्यायन कृत ) – 64
कालिका – पुराण – 64
कादम्बरी – 64
काव्य – शास्त्र ( आचार्य दण्डीकृत ) – 64
अग्निपुराण – 64
बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय के ग्रन्थ – 64
अधिकतर सूचियों में कलाओं की संख्या 64 ( चौंसठ ) ही है और यही संख्या सर्वमान्य होनी चाहिये । परन्तु यह संख्या विभाजन अत्यन्त विवादास्पद है ।