राजस्थानी चित्रकला | तथा 4 शैलियाँ  

राजस्थानी चित्रकला के नामकरण पर विद्वानों के विभिन्न मत हैं । अनेक तर्क – वितर्कों के उपरान्त भी कोई इसे ‘ राजपूत चित्रकला ‘ और कोई ‘ राजस्थानी चित्रकला ‘ कहता है । 

राजस्थानी चित्रकला का वैज्ञानिक विभाजन

राजस्थानी चित्रकला का सबसे पहला वैज्ञानिक विभाजनआनन्द कुमार स्वामी ‘ ने ‘ राजपूत पेंटिंगनामक पुस्तक में सन् 1916 ई . में किया । उनके अनुसार राजपूत चित्रकला का विषय राजपूताना और पंजाब की पहाड़ी रियासतों से संबंधित है । राजस्थानी चित्रकला / राजपूत चित्रकला को उन्होंने दो भागों में विभाजित किया – राजस्थानी , अर्थात् राजपूताने से । और पहाड़ी – अर्थात् जम्मू , कांगड़ा , गढ़वाल , बसहोली , चम्बा आदि पहाड़ी रियासतों से ।

राजस्थानी चित्रकला
राजस्थानी चित्रकला – महाराणा भीम सिंह का जुलूस – उदयपुर

इन रियासतों के अधिकारी प्रमुखतया राजपूत राजा होने के कारण इसे राजपूत चित्रकला के नाम से अभिहित किया गया । उनके अनुसार राजस्थानी चित्रकला का प्रसार बीकानेर से गुजरात की सीमा तक और जोधपुर से ग्वालियर और उज्जैन तक रहा तथा इसके आमेर , ओरछा , उदयपुर , बीकानेर , उज्जैन आदि कला केन्द्र रहे । इसके विपरीत ‘ श्री रायकृष्णदास ‘ का कथन है कि ” डॉ . स्वामी ने अर्वाचीन भारतीय चित्रकला के प्रमुखतया दो वर्ग माने हैं – राजपूत शैली और मुगल शैली , किन्तु राजपूत शैली मानने की कोई गुंजाइश नहीं है ।

यद्यपि राजपूत जाति एक शासक जाति थी तो भी एक ऐसी जाति का प्रभाव समष्टि रूप से कला पर नहीं पड़ सकता ,जिसके देशभर में भिन्न–भिन्न केन्द्र हों ।

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श्री बेसि ग्रे के कथनानुसार

श्री बेसिल ग्रे ‘ का कथन है कि ” राजपूताना विभिन्न देशी रियासतों का केन्द्र था , किन्तु राजपूत चित्रकला का विस्तार बुन्देलखण्ड से लेकर गुजरात तथा पहाड़ी राजपूत शासकों द्वारा शासित रियासतों तक था , इसलिए राजपूत चित्रकला नाम सार्थक है । ‘ वाचस्पति गैरोला ‘ ने राजपूत शैली के अन्तर्गत केवल राजस्थान की चित्रकला को ही स्वीकार किया है , जो और भी भ्रामक उपर्युक्त तथ्यों के अनुसार राजपूत चित्रकला के अन्तर्गत राजस्थान शैली के सभी चित्र आ जाते हैं । जो प्रदेश अंग्रेजी शासनकाल में राजपूताना ‘ कहा जाता था , वही ( थोड़े से हेरफेर ) स्वतंत्रता के बाद ‘ राजस्थान ‘ कहलाया ।

अंग्रेजों से पूर्व ये सारा प्रदेश कभी किसी एक नाम से प्रसिद्ध रहा हो , ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता । ‘ कर्नल टॉड ‘ ने ही सर्वप्रथम सारे प्रदेश को ‘ रायथान ‘ या ‘ राजस्थान ‘ नाम दिया , किन्तु अंग्रेज अधिकारी साधारणतया इसे ‘ राजपूताना ‘ नाम से अभिहित करते थे । अतः राजस्थानी चित्रकला से हमारा तात्पर्य उस चित्रकला से है , जो इस प्रान्त की अमर धरोहर है और जिसके अनेक नामकरण पर बल देने वाले कलामर्मज्ञों में श्री रायकृष्णदास ,पदमश्री रामगोपाल विजयवर्गीय,डब्ल्यू.जी . आर्चर, डॉ . सत्यप्रकाश , डॉ . मोती चन्द्र , कार्ल खण्डालावाला , आदि विद्वानों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । 

राजस्थान की शैलियाँ एवं उपशैलियाँ 

राजस्थानी शैली के विकास में राजस्थान का प्राचीन इतिहास और भौगोलिक रचना का प्रमुख हाथ रहा है । राजस्थानी चित्रकला अन्य भारतीय शैलियों से प्रभावित होती हुई स्वतंत्र रूप से राजस्थान के वीर प्रदेश में पल्लवित हुई है । राजस्थानी चित्रकला की अजस्त्र धारा अनेक स्कूलों , अनेक रियासतों , शैलियों एवं उपशैलियों को परिप्लावित करती हुई 17-18वीं सदी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची , जिससे इसका समन्वित स्वरूप सामने आया ।

राजस्थान कला की शैलियाँ व उपशैलियाँ – इनसे संबंधित शैलियों – उपशैलियों का विभाजन भी निम्नलिखित प्रकार से किया गया है।
1 – मेवाड़ शैली – उदयपुर , देवगढ़ , नाथद्वारा आदि ।
2 – मारवाड़ शैली – जोधपुर , बीकानेर , किशनगढ़ , अजमेर , नागौर आदि ।
3 – हाड़ौती शैली – कोटा , बूंदी , झालावाड़ आदि ।
4 – ढूंढाड़ शैली – जयपुर , अलवर , उनियारा , शेखावाटी आदि ।

राजस्थानी कला शैलियों का विकास क्रम

राजस्थान में विभिन्न शैलियों का जो विकास हुआ , उसे देखकर सारा विश्व विमुग्ध हो उठा । राजस्थानी चित्र शैली में मुगल शैली का प्रभाव तो था , किन्तु अन्तर भी बहुत था । मुगल शैली अगर शरीर था , तो राजस्थान उसकी आत्मा । यहाँ के चित्रकार , फोटोग्राफर नहीं थे । सही अर्थों में चित्रकार थे । इसके विपरीत राजस्थान के कलाकारों ने क्योंकि जीवन को अनन्त साधना का विषय माना था , अतः उनमें धार्मिकता एवं श्रृंगारिकता दोनों ही रहीं । आदर्शों की जो छाप अजन्ता कलम में थी , राजस्थान शैली में वही ज्यों की त्यों विद्यमान है ।

उपशैलियों का वर्गीकरण

हरमन गोएट्ज , कार्ल खण्डालावाला , रामगोपाल विजयवर्गीय, कुँवर संग्राम सिंह ‘ जैसे प्रभूति विद्वानों ने बीकानेर , मारवाड़ , कोटा , जयपुर , शेखावटी जैसी शैलियों में अजमेर , उनियारा , देवगढ़ उपशैलियों को वर्गीकरण में और जोड़ दिया गया । अलवर शैली की मौलिकता पर सन् 1961 ई . में अलवर अंक 16 का प्रकाशन किया गया है । अजमेर , नागौर , झालावाड़ आदि स्थानों की चित्रकला भी धीरे – धीरे खोजबीन शोध द्वारा पूर्ण हो गई है । ‘ डॉ . मोती चन्द्र ‘ ने मेवाड़ , किशनगढ़ और बून्दी की चित्रकला को उनकी शैलीगत विशेषताओं के कारण विशेष महत्त्व दिया है ।

राजस्थानी चित्रकला की कितनी शैलियाँ है ?

राजस्थानी चित्रकला की कितनी शैलियाँ है ? – राजस्थानी चित्रकला की निम्नांकित ‘ चार ‘ शैलियाँ हैं , जिनसे अनेक शैलियाँ , उपशैलियाँ पनपी और विकसित हुईं तथा यह एक – दूसरे से प्रभावित होती रही हैं।
( 1 ) मेवाड़ शैली
( 2 ) मारवाड़ शैली
( 3 ) हाड़ौती शैली
( 4 ) ढूंढाड़ शैली ।

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इन चार शैलियों की भौगोलिक संरचना और राजपूत राजवंशों की सांस्कृतिक परम्परा ने जो विशिष्टता प्रदान की है यह चित्रकला में सादृश्य ही झलकती है।

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